राजस्थान की विविध भाषाओं में मारवाड़ी भाषा का अपना एक विशेष स्थान है। यह केवल एक संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि राजस्थान की संस्कृति, परंपरा और लोकजीवन की आत्मा को अभिव्यक्त करने वाली भाषा है। मुख्य रूप से जोधपुर, बीकानेर, नागौर, पाली, और जालोर जिलों में बोली जाने वाली यह भाषा, राजस्थानी बोली समूह की सबसे प्रमुख शाखाओं में से एक मानी जाती है।
मारवाड़ी भाषा की सबसे बड़ी खूबी इसकी मधुरता और भावपूर्ण अभिव्यक्ति है। इस भाषा में बोलचाल का एक अलग ही रस है — इसकी लय, ध्वनि और उच्चारण में एक अपनापन झलकता है। यही कारण है कि मारवाड़ी सुनने वाला व्यक्ति तुरंत ही इस भाषा की सादगी और मिठास से जुड़ जाता है।
साहित्यिक दृष्टि से देखें तो मारवाड़ी भाषा का इतिहास अत्यंत समृद्ध है। पुराने समय में इस भाषा में लिखे गए लोकगीत, कविताएं और दोहे आज भी जनमानस में जीवित हैं। ढोला-मारू री बात जैसी अमर प्रेमकथा और वीर तेजाजी जैसे लोकनायक की गाथाएं मारवाड़ी साहित्य की धरोहर हैं। इसके अलावा संत दादूदयाल और कविराज इसरदास जैसे कवियों ने मारवाड़ी को आध्यात्मिक और दार्शनिक स्वर प्रदान किया।
मारवाड़ी भाषा में निहित हास्य, व्यंग्य और जीवन दर्शन इसे और भी विशेष बनाता है। यहां के कविराज, लोककथाकार और भाट-चारण समुदाय ने अपने गीतों और कथाओं के माध्यम से समाज की परंपराओं, आस्थाओं और इतिहास को संजोए रखा है। यह भाषा न केवल साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम है, बल्कि समाज के लोकजीवन का दर्पण भी है।
आज भी मारवाड़ी भाषा नाटकों, फिल्मों और लोक संगीत में अपनी मजबूत उपस्थिति बनाए हुए है। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भी मारवाड़ी कंटेंट की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है, जिससे नई पीढ़ी इस भाषा से फिर से जुड़ रही है।
मारवाड़ी भाषा राजस्थान की पहचान है — इसमें रेत के कणों की तरह गर्मजोशी है, लोकगीतों की तरह मिठास है और संस्कृति की तरह गहराई। यह भाषा केवल बोली नहीं जाती, बल्कि महसूस की जाती है।
Author: News Desk
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