Big Research: सिन्धु, सरस्वती, गंगा और नर्मदा नदियों के किनारे स्थित हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में प्राप्त पुरातात्विक सामग्री यह स्पष्ट करती है कि इस क्षेत्र में वैदिक प्रकृति पूजा की एक समृद्ध संस्कृति विद्यमान थी।
3500-1700 ई.पू. के समय की सिंधु घाटी सभ्यता के अभिलेखों में पाए गए 419 संकेताक्षरों में ब्राह्मी लिपि के सभी अक्षर शामिल हैं, जिससे इसे वेदकालीन ब्रह्म या वैदिकी के रूप में भी जाना जा सकता है। इस प्रकार, सिन्धु सभ्यता को सरस्वती और नर्मदा के आसपास फैली वैदिक संस्कृति के रूप में देखा जा सकता है।
सिन्धु मुद्राओं के अभिलेखों में 419 चिन्हों के साथ पौराणिक अवतार, देवताओं, मनुष्यों, मछलियों, राशियों, ग्रहों, शुभ चिन्हों, पशु-पक्षियों और अन्य वस्तुओं के चित्र भी शामिल हैं। इन चित्राक्षरों का विकास चाणक्य कालीन ब्राह्मी लिपि में हुआ। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त इन मुद्राओं को सिन्धु मुद्राएं और उन पर अंकित लिपि को सिन्धु लिपि कहा जाता है।
एलपी टेसीटरी ने 5 से 10 अप्रैल 1917 तक राजस्थान में सरस्वती नदी की शुष्क घाटी में कालीबंगन के टीलों पर कई प्राचीन अवशेषों की खोज की थी। उन्होंने इनके प्रागैतिहासिक महत्व को उजागर किया, लेकिन उन्हें खेद के साथ सूचित करना पड़ा कि जॉन मार्शन ने उन्हें अपने लेख को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी। अगर उन्हें अनुमति मिली होती, तो सरस्वती संस्कृति का महत्व वैश्विक स्तर पर स्थापित होता।
ब्राह्मी लिपि को सिन्धु लिपि का द्विभाषी रिसोटा अभिलेख माना जा सकता है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मुद्रा में ‘पद्म’ शब्द को तीन बार विभिन्न चिन्हों से अंकित किया गया है। बौद्ध ग्रंथ ललित विस्तार में 64 प्रकार की लिपियों का उल्लेख है, जबकि प्राचीन जैन ग्रंथ समवायसूत्र में ब्राह्मी सहित 18 प्रकार की लिपियों का वर्णन है।
भारत की प्राचीनतम संस्कृति वैदिक है, और उसके प्राचीनतम ग्रंथ वेद हैं। इस संदर्भ में, भारत की प्राचीनतम लिपि को ब्रह्म लिपि कहा जा सकता है, जिससे सिन्धु लिपि को एक सार्थक नाम दिया जा सकता है। इस लिपि का आविष्कार भगवान ऋषभदेव ने किया था।
अशोक लिपि के प्रचलन के समय तक सिन्धु लिपि की खोज नहीं हो पाई थी, जिसके कारण पाश्चात्य विद्वानों ने अशोक लिपि को ब्रह्म लिपि की संज्ञा दे दी। वास्तव में, यह सिन्धु लिपि का विकसित और परिष्कृत रूप है।
इस प्रकार, सिंधु सरस्वती लिपि का अध्ययन न केवल प्राचीन भारतीय संस्कृति को समझने में सहायक है, बल्कि यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर को भी उजागर करता है।
संदर्भ: डॉ करुणा शंकर शुक्ल, “सिंधु सरस्वती लिपि उद्वाचन एवं परिचय”
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