सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि भारतीय रेलवे हमारे देश के बुनियादी ढांचे का एक प्रमुख आधार है और इसकी टिकटिंग प्रणाली की अखंडता और स्थिरता को बाधित करने वाले किसी भी प्रयास को रोकना चाहिए।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने रेलवे टिकटिंग में धोखाधड़ी के आरोपों से जुड़े दो अलग-अलग मामलों की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की।
यह मामला रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 143 की व्याख्या से संबंधित था, जो रेलवे टिकटों की अनधिकृत खरीद और आपूर्ति से जुड़े व्यवसायों पर दंड लगाने का प्रावधान करता है।
मामले का विवरण
पहला मामला केरल उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने से संबंधित था, जिसमें मथ्यू के चेरियन के खिलाफ रेलवे अधिनियम की धारा 143 के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया गया था। मथ्यू पर आईआरसीटीसी पोर्टल पर फर्जी यूजर आईडी बनाकर रेलवे टिकटों की खरीद और मुनाफे के लिए बिक्री का आरोप था, जबकि वह अधिकृत एजेंट नहीं थे।
दूसरे मामले में, जे. रमेश ने मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी, जिसमें उनके खिलाफ धारा 143 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया गया था। रमेश, जो एक अधिकृत एजेंट थे, पर कई यूजर आईडी के जरिए बुक किए गए ई-टिकट विभिन्न ग्राहकों को आपूर्ति करने का आरोप था।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मथ्यू, जो रेलवे के अधिकृत एजेंट नहीं थे, उनके खिलाफ धारा 143 के तहत कार्यवाही जारी रहनी चाहिए। हालांकि, रमेश के मामले में, अदालत ने उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
पीठ ने कहा, “धारा 143, जो कई यूजर आईडी के निर्माण पर पूरी तरह से चुप है, केवल अनधिकृत एजेंटों की कार्रवाइयों को दंडित करती है, न कि अधिकृत एजेंटों की अनधिकृत कार्रवाइयों को।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि रमेश, एक अधिकृत एजेंट होने के कारण, उनके खिलाफ अनुबंध की शर्तों के कथित उल्लंघन के लिए आपराधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती। “यदि कोई उल्लंघन हुआ है, तो उसे नागरिक कार्यवाही के माध्यम से समाधान करना होगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि धारा 143 को एक सामाजिक अपराध से निपटने के लिए लागू किया गया है।
यह फैसला रेलवे टिकटिंग प्रणाली में अनियमितताओं को लेकर न्यायिक दृष्टिकोण और जिम्मेदारियों की स्पष्टता पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
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